Abhyudaya
by Narendra Kohli
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- Publisher: Vani Prakashan
- Original Title: Abhyudaya
- ISBN: 818143191-x
- Language: Hindi
क़िताब के फ्लिप कवर पर लिखा है -" यह आपके जीवन और समाज का दर्पण है। "- शुरू में स्वीकार्य नहीं लगा , कैसे इतनी पुरानी कथा आज भी प्रासंगिक हो सकती है परन्तु " जन -सामान्य का भीरु हो जाना अत्यंत शोचनीय है , …. !" " यदि ऐसा न होता तो इन राक्षसों का इतना साहस ही न होता। " " जिसके सिर पर पड़ती है वह स्वयं भुगत लेता है -शेष प्रत्येक व्यक्ति इन घटनाओं से उदासीन , स्वयं को बचाता-सा निकल जाता है। "- ने प्रासंगिकता की पुष्टि कर दी। ‘मात्र चिंतन’ व ‘मात्र कर्म’ के एकांगी होने के दुष्परिणाम की व्याख्या करते हुए लेखक का कहना है कि" केवल कर्म व्यक्ति को राक्षस बना देता है। " तथा " सामान्यतः बुद्धिवादी ऋषि अपंग और कर्मशून्य हो जाता है। " " नागरिक को परिवाद लेकर स्वयं शान तक पहुंचना पड़े तो वह आदर्श व्यवस्था नहीं है। " पंक्ति को किसी अतिरिक्त व्याख्या की आवश्यकता नहीं है। कोहली ने धर्म को गहराई से जानने की कोशिशें सदैव जारी रखी , यहाँ भी " धर्म का मर्म अत्याचार का विरोध करने में है , ....... शेष बातें तो आडम्बर मात्र है। " कोहली दार्शनिक के रूप में अधिक स्थापित हैं या लेखक के रूप में , निष्कर्षतः कुछ कहना असंभव है। पंक्तियाँ -" अवतार की आवश्यकता दुर्बल प्रजा को होती है,...... तेजस्वी प्रजा अपने आप में ईश्वर का रूप होती है। ...... अदीक्षित प्रजा की सहायता से की गई क्रांति बहुधा दिग्भ्रमित हो जाती है।" - उनके गहन चिंतन का ही परिणाम प्रतीत होती है। कोहली का लेखन विचारों की द्वंद्वता / मन की उद्विग्नता पर लगाम कस कर , ठहराव लाता है। वे व्यवस्थाओं का सार प्रस्तुत करते हैं , सामाजिक सन्देश देते हैं , अतः किसी भी क्षण वे वर्तमान में अप्रासंगिक नहीं लगते। उन्होंने व्यवस्थाओं के आकलन हेतु कथाओं को आधार बनाया है। वस्तुतः कथा तो अवलम्बन मात्र ही है। कथाकार ने मन की कह दी -" नवीन ग्रन्थ देखते ही , ….. भीतर बैठा ग्रन्थ -लोभी जाग उठता है। ...... इच्छा होती है, सारे ग्रन्थ पढ़ जाएँ ,.... " ऋषि गौतम की कथा अच्छी बन पड़ी है। अहल्या प्रकरण इतना मर्मस्पर्शी कि पंक्तिया पढ़ना भारी हो गया। हादसा किस प्रकार क्षत -विक्षत कर डालता है हृदयविदारक भी शायद हल्का लगे। जीवंत घटनाक्रम तो संभवतया किसी के सम्मुख होता है, यहाँ तो खुद में ही अहल्या घर कर गयी, पृथक वजूद का आभास ही समाप्त हो गया। बलात्कार पीड़िता के सामाजिक कलंक की उचित व्याख्या करते हुए " अनेक ऋषियों को राक्षसों ने मार डाला। ..... कईओं की आँखें फोड़ दी। क्या इसके लिए ऋषियों को दोषी ठहराकर , दंड दिया जा सकता है। " किसी की लेखनी इतनी प्रभावशाली भी हो सकती है आज अनुभव हुआ जब पढ़ते वक़्त अश्रु बाह निकले, कंठ अवरुद्ध हो गए -"...... अहल्या अपनी पीड़ा की अग्नि में जलकर भस्म नहीं हुई थी , उसका तेज जाग उठा था। ......."- शायद ऐसी ही किसी दुर्घटना के क्रम में माननीय उच्चतम न्यायालय ने " एक महिला का शरीर उसके लिए मंदिर होता है।" -कहा है। महादेवी वर्मा की पंक्तियाँ याद आ गई " नारी तेरी यही कहानी ..... " नारी की शारीरिक सरंचना ही अनंत काल से दुश्मनी निभाती चली आ रही है। क्या किसी काल में इसे सहज भी लिया जायेगा ? लक्ष्मण रुपी पात्र के माध्यम से माहौल को हल्का फुल्का बनाये रखने का सफल प्रयास किया गया है। अंग्रेजी में substance पढ़ते पढ़ते युग बीत गए हिंदी में " धातु " आज पढ़ा है।" उसकी धातु को पहचानते हैं। " घटनाओं की परिभाषा ही अब सीख रही हूँ " जन -मानस में अन्याय का रूप स्पष्ट कर उसके विरुद्ध आक्रोश भड़काना क्रांति की पृष्टभूमि को प्रस्तुत करना है।" "धनार्जन के लिए धूर्तता चाहिए" सोचने पर मजबूर करती है कि यदि यह कथा उस काल की सामाजिक व्यवस्था के शोध पश्चात् लिखी गयी है तो विचारणीय विषय है कि तब और अब की सोच में इतनी समानता कैसे !!!! क्या इसके मायने यह नहीं है कि समाज की सोच में कोई बदलाव नहीं हुआ हैं, विकास के सारे दावे खोखले हैं ??? कहीं कही जैसे मुर्तु के प्रसंग में कोहली पाठक को बाँधने में असफल रहे हैं। कहानी में कहानी उकताहट पैदा करती है। स्वयं को संपूर्ण पठन के दौरान "उपदेश श्रवणार्थी" के रूप में पाती हूँ।
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