आज बहुत दिनों के बाद अच्छी आमदनी हुई है। पिछले दिनों बारिश की ऐसी झड़ी लगी रही कि बस एक आधा जना ही भागता भागता अपने जूते /चप्पल ठीक करवाने पहुँचता। फिर आजकल उन्हें ठीक करवा कर पहनने का चलन भी तो खत्म हो गया है। नयी जमात तो कपड़ो के साथ ही जूते बदल लेती है। उन्हें ठीक करने /कराने का झंझट ही नहीं रखती है।
मौसम खुलने के साथ ही आज ग्राहकों की संख्या भी बढ़ गयी। एक के बाद एक लोग आते ही रहे। कभी कभी ऊपर वाला इधर भी झाँक लेता है। फिर सोचा इस ख़ुशी में माँ को भी खुश किया जाये। उसको जलेबी बहुत पसंद है। बत्तीसी तो नहीं रही लेकिन उसका रस चूस लेगी।
मोटूराम की दुकान घर के रास्ते में ही है। उसकी ख़ासियत है कि जब भी पहुँचों कढ़ाई चढ़ा कर गरमागर्म जलेबी निकाल देता है। घोल तो वो दिन भर की बिक्री के हिसाब से तैयार ही रखता है। अब पचासों साल का अनुभव है जलेबी बनाने के साथ साथ ग्राहकों की गणित में भी माहिर हो गया है।
वैसे मोटूराम का आकार प्रकार उसके नाम अनुसार ही है। अँधेरे में कभी कोई देख लें तो पता ही न चले कहाँ कड़ाई का घेरा ख़त्म हुआ और कहाँ मोटूराम के पेट का घेरा शुरू हुआ। कुल मिलाकर एकाकार या यूँ कहे दैत्याकार लगता है।
मन में आया कि कदम थोड़े तेज बढ़ाऊँ कहीं ऐसा न हो कि जलेबी के सपने ही लेता रह जाऊँ और मोटूराम दुकान बढ़ा कर रवाना हो जाये।
वहां पहुँचने पर जैसा सोचा वैसा ही हो रहा था। मोटूराम दुकान समेटने की तैयारी कर रहा था । पर उसने मुझे निराश नहीं किया। कड़ाई पुनः चढ़ा दी।
जलेबी लेकर मुड़ ही रहा था कि अंधाधुंध दौड़ते आ रहे लोगो में से किसी के टकराने से मेरे हाथ से जलेबी का दौना सड़क पर गिर गया। मैं सम्भलता उससे पहले ही पीछे आ रही भीड़ ने जलेबियों के साथ मुझे भी रौंद दिया। उधर कुछ लोगो ने मोटूराम पर हमला किया। उसने अपना गल्ला बचने की कोशिश की तो एक ने चाकू सीधा उसके सीने में उतार दिया।
मैं सड़क पर पड़ा बेबस सा देखता ही रह गया। दंगाइयों का ध्यान अब मेरी तरफ आया। उनके सिर पर खून सवार था। मैं बहुत गिड़गिड़ाया। मैंने अपनी जान की भीख मांगी।
पर उन्होंने अपने साथ हुए अन्याय की बात दोहराते हुए हुकूमत से बदला लेने की बात कही। “हुकूमत तब सुनेगी जब चारों ओर से चीखें निकलेगी।” उनमे से कोई बोला ” हम यही तो चाहते हैं तुम तड़पो ,चिल्लाओ ताकि हमारी मांग सुनी जाये ” और कहते हुए एक चाकू मेरे सीने में उतार दिया।
………………… माँ……… जलेबी अगली बार।